शनिवार, 8 नवंबर 2014



उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है 

उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है 
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है 

नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये 
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है 

थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटे 
सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है 


बहुत बेबाक आँखों में त’अल्लुक़ टिक नहीं पाता 
मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है 

सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का 
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है 

मेरे होंठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो 
कि इस के बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है 

वसीम बरेलवी